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|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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'जनमे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,
 
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
 
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
 
रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।
 'मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है, 
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
 बढ़ता गया अगर निष्कंटक यह उद्‌भट उद्भट भट बांल, 
अर्जुन! तेरे लिये कभी यह हो सकता है काल!
 
'सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,
 
इस प्रचंडतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?
 
शिष्य बनाऊँगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात;
 
रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!'
 
रंग-भूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
 
चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।
 
कञ्चन के युग शैल-शिखर-सम सुगठित, सुघर सुवर्ण,
 
गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ' कर्ण।
 
बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
 
चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से।
 
आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय सिद्ध अवसान,
 
विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान।
 
और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
 
सबके पीछे चली एक विकला मसोसती मन को।
 
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,
 
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।
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