भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
मालूम था मुझको कि हर धारा नदी होती नहीं
हर वृक्ष की हर शाधन्खयवाद शाख फूलों से लदी होती नहीं फिर भी लगा जब तक कदम क़दम आगे बढ़ाऊँगा नहीं,
कैसे कटेगा रास्ता यदि गुनगुनाऊँगा नहीं,
यह सोचकर सारा सफ़र, मैं इस कदर क़दर धीरे चला
लेकिन तुम्हारे साथ फिर रफ़्तार दूनी हो गई!