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रोशनी / अनिल करमेले

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<poem>
बार-बार लौटा हूँ उस दर से
जहॉँ मुझे नहीं जाना चाहिए था
वहाँं कभी पहुँच नहीं पाया
जहाँ मेरी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी

उन रास्तों पर अक्सर चलता चला गया
जहाँ चलते रहने के अलावा कुछ भी नहीं था
जिनसे किसी ठिकाने पर पहुँचा जा सकता था
वे रास्ते मेरी नज़रों से हरदम ओझल रहे

जिनके साथ नहीं होना चाहिए था मुझे पल भर
वे मेरे दिन-रात के साथी रहे
जो पुकारते रहे मुझको
और अपने जीवन में मेरे लिए जगह बनाते रहे
मैंने कभी नहीं सुनी उनकी प्रार्थना

मेरे सामने चकाचौंध रोशनी थी
जो मेरे पीछे के अँधेरों से जीवन ले रही थी

जब मेरी आँखें
अपने पीछे का अँधेरा पहचानने लायक हुईं
मेरे सामने की रोशनी ख़त्म हो गई थी।</poem>
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