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उन्वान / अजय सहाब

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<poem>
क्या ज़रूरी है मुहब्बत को मुहब्बत कहना ?
क्या बिना नाम दिए प्यार नहीं हो सकता ?
क्यों ज़रूरी है कि खुशबू को कहें हम खुशबू ?
क्या बिना बोले ये अहसास नहीं हो सकता ?

प्यार कह कह के कोई प्यार करे तो क्या है
प्यार जज़्बात की तश्हीरो नुमाइश तो नहीं
प्यार करना तो मुक़द्दस सी जज़ा है खुद में
प्यार कुछ पाने की बेसूद सी ख़्वाहिश तो नहीं

प्यार मिल जाए तो उन्वान न देना उसको
नाम कुछ भी हो मुहब्बत तो वही रहती है
कोई फूलों को अगर ख़ार पुकारे भी तो क्या
फूल की ज़ीनतो निकहत तो वही रहती है
</poem>
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