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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
वो भी हैं जो हाथ में लेकर शमशीर
कत्लो-ग़ारत फैलाते हैं बे-पीर
कितने बे-दर्दो-बे-हिस हैं वो लोग
है हर कसो-नाकस ही उनका नखचीर।
</poem>
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