1,141 bytes added,
07:00, 7 सितम्बर 2020 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अंबर खरबंदा
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हमारी बेबसी बोली है कुछ-कुछ
ये दुनिया तब कहीं समझी है कुछ-कुछ
जो सुनता है दिमाग़-ओ-दिल से यारो!
उसी से ज़िंदगी कहती है कुछ-कुछ
न उलझाओ फ़रेबों में हमें तुम
के दुनिया हमने भी देखी है कुछ-कुछ
कभी फ़ुर्सत हो तो सुन जाओ तुम भी
हमारी ख़ामुशी कहती है कुछ-कुछ
हमें बिछड़े ज़माना हो गया है
अभी भी मुझ में तू बाक़ी है कुछ-कुछ
उलझती है ये दिल वालों से अक्सर
ये दुनिया सरफिरी लगती है कुछ-कुछ
</poem>