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<poem>
रुत ख़िज़ाँ की है और हरी हुई है
शाख़-ए-गुल तू तो बावरी हुई है

क्या उड़ानों को हौसला देगी
ऐ हवा तू तो ख़ुद डरी हुई है

ज़िंदगी मिल कभी तो फ़ुर्सत से
बात अभी तुझ से सरसरी हुई है

कोई मंज़र नहीं है आँखों में
रतजगों की थकन भरी हुई है

क़ुर्बतें करवटें बदलती हुई
और अना बीच में धरी हुई है

ये जो बैठे हैं सर झुकाए हुए
आज इन से खरी खरी हुई है

ख़ुद-कलामी है ये तिरी 'नुसरत'
मत अभी सोच शाइ'री हुई है
</poem>
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