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<span class="mantra_translation">
कोसल के मुनि श्री आश्रव्लायन ने ऋषि पिप्लाद से,<br>
पूछा की प्राण का जन्म कैसे, होता किसके प्रसाद से।<br>
यह कैसे आता देह में, स्थित विभाग की क्या क्रिया,<br>
जग व् मन का ग्रहण कैसे, क्या उत्क्रमण की प्रक्रिया? [ १ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
मन मुदित ऋषि, पिप्लाद ने तब आश्रव्लायन से कहा,<br>
अति क्लिष्ट तेरे प्रश्न प्राण की गूढ़ अति महिमा महा।<br>
नहीं तार्किक श्रद्धालु तू, वेदों में अति निष्णात है,<br>
देता हूँ उत्तर प्रश्नों का, जितना भी मुझको ज्ञात है॥ [ २ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
परब्रह्म प्राणों का रचियता, महिम महि महिमा महे,<br>
सम काया-छाया प्राण ब्रह्म के आश्रय में ही रहें।<br>
यह प्राण मन संकल्प से काया में करते प्रवेश हैं,<br>
प्राणों के काया प्रवेश में यही भाव तत्व विशेष है॥ [ ३ ]<br><br>
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अधिकारियों को ग्रामों में, सम्राट करता नियुक्त है,<br>
यह मुख्य प्राण उसी तरह, प्राणों को करता विभक्त है।<br>
पृथक ही करके विभाजित क्षेत्र स्थापित करे,<br>
यूँ मुख्य प्राण विभक्त होकर स्वयम को ज्ञापित करें॥ [ ४ ]<br><br>
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स्वयं प्राण तो नासिका मुख से विचार कर नेत्र में,<br>
श्रोत्र में स्थित रहे व् अपान उपस्थ के क्षेत्र में।<br>
नाभि में स्थित प्राण देते, अन्न रस सम भाव से,<br>
करे सात ज्वालायें ज्वलित, प्राणाग्नि के ही प्रभाव से॥ [ ५ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
हृदय देश में गात के, जीवात्मा का वास है,
मूल उसमें सौ नाड़ियों, एक-एक में सौ का विकास है।
प्रति एक शाखा नाडियों, बहत्तर -बहत्तर सहस्त्र हैं,
कुल बहत्तर कोटि योग, ये न्यान वायु के क्षेत्र हैं॥ [ ६ ]<br><br>
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