भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति}} {{KKPageNavigation |पीछे=पंचम प्रश्न / भाग २ / प...
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मृदुल कीर्ति}}
{{KKPageNavigation
|पीछे=पंचम प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
|आगे=षष्ठ प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
|सारणी=प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
}}

<span class="upnishad_mantra">
</span>

<span class="mantra_translation">
भारद्वाज पुत्र सुकेशा ने पूछा ऋषि पिप्लाद से,<br>
मुझसे हिरण्यनाभ ने यह पूछा था आह्लाद से।<br>
सोलह कलाओं मय पुरूष से, कहो क्या मैं विज्ञ हूँ,<br>
नहीं, मैं नहीं जानता, अथ कहें आप कृतज्ञ हूँ॥ [ १ ]<br><br>
</span>

<span class="upnishad_mantra">
</span>

<span class="mantra_translation">
हे प्रिय सुकेशा वह शरीर के अति अन्तः प्रकट है,<br>
सोलह कलाओं मय पुरूष अन्तः शरीरे नकट है।<br>
अन्यत्र अन्वेषण हो उसका, खोज उसकी व्यर्थ है,<br>
अभिलाषा उत्कट जब जगे, मिले हृदय मैं यही अर्थ है॥ [ २ ]<br><br>
</span>

<span class="upnishad_mantra">
</span>

<span class="mantra_translation">
अति आदि में महा सर्ग के , सोचा रचयिता ने जगत के,<br>
क्या तत्व डालूँ महत कि जिसके बिना अस्तित्व के।<br>
न मैं रहूँ , सत्ता मेरी भी साथ उसके विलीन हो,<br>
यदि वह प्रतिष्ठित मैं भी स्थित , मेरी सत्ता आधीन हो॥ [ ३ ]<br><br>
</span>

<span class="upnishad_mantra">
</span>

<span class="mantra_translation">
यह सोच ब्रह्म ने अति प्रथम रचे प्राण फ़िर श्रद्धा महे,<br>
नभ , वायु, जल, भू, तेज, मन, तप, अन्न, वीर्य, विद्या, अहे।<br>
बहु मन्त्र , बहु विधि कर्म, लोकों का सृजन और नाम भी,<br>
अथ रचित सोलह कला मय जग, पुरूष ब्रह्म का धाम भी॥ [ ४ ]<br><br>
</span>