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{{KKRachna
|रचनाकार=शहरयार
|अनुवादक=
|संग्रह=शाम होने वाली है / शहरयार
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{{KKCatNazm}}<poem>
सफ़र की इब्तिदा नए सिरे से हो
 
कि आगे के तमाम मोड़ वह नहीं हैं
 
चींटियों ने हाथियों की सूँड में पनाह ली
 
थके-थके से लग रहे हो,
 
धुंध के ग़िलाफ़ में, उधर वह चांद रेगे-आसमान से
 
तुम्हें सदाएँ दे रहा है, सुन रहे हो
 
तुम्हारी याददाश्त का कोई वरक़ नहीं बचा
 
तो क्या हुआ
 
गुज़िश्ता रोज़ो-शब से आज मुख़्तलिफ़ है
 
आने वाला कल के इन्तज़ार का
 
सजाओ ख़्वाब आँख में
 
जलाओ फिर से आफ़ताब आँख में
 
सफ़र की इब्तिदा नए सिरे से हो।
</poem>
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