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प्रतीक्षा / कीर्ति चौधरी

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करूंगी प्रतीक्षा अभी ।


दृष्टि उस सुदूर भविष्य पर टिका कर

फिर करूंगी काम।

प्रश्न नहीं पूछूंगी,

जिज्ञासा अन्तहीन होती है

मेरे लिए काम जैसे

जपने को एक नाम।


मैं ही तो हूँ

जिसने उपवन में

बीजों को बोया है।

अंकुर के उगने से बढ़ने तक

फलने तक

धैर्य नहीं खोया है

एक-एक कोंपल की चाव से

निहारी है बाट सदा।


देखे हैं

शिशु की हथेली मसृण

हरित किसलय दल

कैसे बढ़ आते हैं।

दुर्बल कृश अंग लिए उपजे थे

वे ही परिपुष्ट बने

झूम लहराते हैं।


मैं ही तो हूँ

जिसने प्यार से सँवारी है

डाल-डाल

आएंगी कलियाँ

फिर बड़े गझिन गुच्छों में

फूलेंगे फूल लाल

करूंगी प्रतीक्षा अभी

पौधा है वर्तमान

हर दिन हर क्षण।


न्व कोंपल पल्लव समान

हरियाए, लहराए,

यत्न से सँवारूंगी।

आख़िर तो

बड़े गझिन गंध-युक्त गुच्छों-सा

आएगा भविष्य कभी।


करूंगी प्रतीक्षा अभी ।
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