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सवेरे-सवेरे / कुंवर नारायण

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{{KKRachna
|रचनाकार = कुंवर नारायण
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कार्तिक की हँसमुख सुबह।

नदी-तट से लौटती गंगा नहा कर

सुवासित भीगी हवाएँ

सदा पावन

माँ सरीखी

अभी जैसे मंदिरों में चढ़ाकर ख़ुशरंग फूल

ठंड से सीत्कारती घर में घुसी हों,

और सोते देख मुझ को जगाती हों--

:सिरहाने रख एक अंजलि फूल हरसिंगार के,

:नर्म ठंडी उंगलियों से गाल छूकर प्यार से,

बाल बिखरे हुए तनिक सँवार के...
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