भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
पहला रात के अँधेरे में
किसी सुनसान... बीहड़ में
चीते की फुर्ती से
घात लगाकर आता है
हर आहट पर चौंकती है
पता नहीं, आज क्या हो?
दुहाई काली माता... रक्षा करना।
नहीं पहनती मँहगी साड़ियाँ, गहनें
औरतें बातें बनाएँगी...
शक बढ़ेगा।
पल-पल घुल रही है चिन्ता में
कि आज सकुशल लौटेगा
उसका सुहाग या फिर।
उधर, दूसरा...
दिन के उजाले में
मेन-रोड पर
गाड़ी बंद कर
दबे पाँव उस तक पहुँचता है।
गिड़गिड़ाहट का भी कोई असर नहीं
चलो, दो पेटी माल ही उतार दो
चाहो तो किसी को साथ ले लो
पाँच बजे गाड़ी भिजवा दूँगा
अभी चलता हूँ...
ड्यूटी का टाईम है॥
</poem>
