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<poem>
अगर बदल न दिया आदमी ने दुनियाँ को,
तो जान लो कि यहाँ आदमी कि खैर नहीं. 
हर इन्किलाब के बाद आदमी समझता है,
कि इसके बाद न फिर लेगी करवटें ये ज़मीं. 
बहुत न बेकसी-ए-इश्क़ पर कोई रोये,
कि हुस्न का भी ज़माने में कोई दोस्त नहीं. 
अगर तलाश करें,क्या नहीं है दुनियाँ में,
जुज़ एक ज़िन्दगी कि तरह ज़िन्दगी कि नहीं.</poem>
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