भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
तुम्हें पाने को बढ़ें
फिर हम सूली चढ़ें।
35
धरा किसी की
गगन किसी का
हमने लूटे
ये क्रुद्ध हुए जब
दर्प सभी का टूटा ।
36
बालू की भीत
ठहरा तू मानव
दर्प छोड़ दे
रुष्ट है पूरी सृष्टि
ढहेगा दो पल में।
37
घर पराया
तूने माना अपना
जीभर लूटा
लगी एक ठोकर
गर्व खर्व हो गया।
<poem>