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<poem>
हम-तुम एक डाल के पंछी, आओ हिलमिल कर कुछ गाएँ।
अपनी प्यास बुझाएँ, सारी धरती के आँसू पी जाएँ।।

अपनी ऊँचाई पर नीले-
अम्बर को अभिमान बहुत है।
वैसे इन पंखों की क्षमता,
उसको भली प्रकार विदित है।।
तिनके चुन-चुन कर हम आओ, ऐसा कोई नीड़ बसाएँ-
जिस में अपने तो अपने, कुछ औरों के भी घर बस जाएँ।।

धूल पी गई उसी बूँद को-
जो धारा से अलग हो गई।
हवा बबूलों वाले वन में,
बहते-बहते तेज़ हो गई।।
इधर द्वारिका है, बेचारा, शायद कभी सुदामा जाए।
आओ, हम उसकी राहों में काँटों से पहले बिछ जाएँ।।

कौन करेगा स्वयं धूप सह,
मरुथल से छाया की बातें।
रूठेंगे दो-चार दिनों को,
चंदा और चाँदनी रातें।।
अपत हुए सूखे पेड़ों की हरियाली वापस ले आएँ।
चातक से पाती लिखवा कर मेघों के घर तक हो आएँ।।
-24 अगस्त, 1967
</poem>
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