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(१)
मूक यौवन का निठुर उभार,
वेदना-सा, बन कर साकार,साकार।
हिला देता मानस के कोर,
प्राण छू जाते, दुःख के छोरछोर।।
(२)
निविड़ साँसों का यह उत्ताप,
उठा लाता सपनों के पाप,पाप।
हृदय का स्पन्दन कर चीत्कार-
साँप-सा भरता है फूत्कारफूत्कार।।
(३)
गुलाबी स्मृति के ये तार-
किसी का अनचाहा विश्वास-।।
(४)
विदा कर देते, नीरव मान,बबूलों-सा बन कर अनजान,अनजान।सौंप विस्मृति के कर में प्यास,-
प्रणय का करते हैं आह्वान।।
(५)
(६)
कि जैसे बालारुण के चरण-
नयन से यों मिल जाते हैं-हैं।
जलज के उर में भर आनंद,
मधुप का मन बहलाते हैं।।
-२१ मार्च, १९६२
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