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स्त्री / विजय सिंह नाहटा

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स्त्री:
एक पौधा असंख्य कामनाओं का
जिसे हर बार
उखाड़ा गया बेरहमी से
झिंझोड़ा गया जड़ों को।
पर, हर बार फूट आती जड़ें
नरम औ' मुलायम
निकल आती हौले-से
धरा का अँधेरा
चीरकर हरीतिमा।
यह थोड़ा हरापन बचा है:
इस पृथ्वी पर
थोड़ी सी रोशनी
थोड़ा सा प्रेम
थोड़ी सी आदमीयत
थोड़ा सा जीवन
शायद;
उस स्त्री की ही बदौलत।
</poem>
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