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शंकरलाल द्विवेदी / परिचय

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{{KKRachnakaarParichay
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}} स्वनामधन्य कवि श्री शंकर द्विवेदी बाल्यावस्था से ही फक्कड़ व स्वाभिमानी प्रवृत्ति के धनी थे। उन्हें ओज तथा वीर रस के साथ-साथ श्रृंगार-रस में भी सिद्धि प्राप्त थी। वे 'आग' और 'राग' दोनों स्वरों के अद्भुत काव्य-सर्जक रहे हैं। श्रृंगार-रस आधारित काव्य में भी वे संयोग तथा वियोग दोनों ही पक्षों पर समानाधिकार रखते थे। अपने गीत-माधुर्य और ओजमयी प्रस्तुतियों के कारण वे अपने समकालीन कवियों में ख़ासा लोकप्रिय हुआ करते थे। अपनी विलक्षण काव्य प्रतिभा के कारण उन्हें अखिल भारतीय कवि-सम्मलेनों में विशिष्ट सम्मान प्राप्त था।

अपने जीवन-काल में गणतंत्र-दिवस के उपलक्ष्य में, लाल-किले की प्राचीर से आयोजित होने वाले कवि-सम्मेलनों में श्री द्विवेदी का स्वर सदैव अपनी उपस्तिथि का एहसास कराता रहा है। उनकी ओजमयी वाणी से प्रभावित हो कर राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी ने उन्हें 'आधुनिक दिनकर' की संज्ञा से संबोधित किया। ब्रज-भाषा काव्य में में वे 'लांगुरिया गीतों' की परमपरा के अमर-गायक के रूप में विख्यात हैं। आकाशवाणी दिल्ली तथा मथुरा से 'काव्य-सुधा' तथा 'ब्रज-माधुरी' कार्यक्रमों के अंतर्गत उनके काव्य का अनेक बार प्रसारण हुआ है।

समकालीन समाचार-पत्रों तथा साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ अनेक काव्य-संकलनों में ''{'अमर उजाला', 'नव-प्रभात', 'नवलोक-टाइम्स', 'सैनिक', 'नागरिक', 'अमर-जगत' (समाचार-पत्र), 'युवक', स्वदेश', 'साहित्यालोक', 'स्वराज्य' (साप्ताहिक), 'सृजन' (त्रैमासिक) इत्यादि}''' में समय-समय पर उनके काव्य का संकलन व प्रकाशन होता रहता था। पद्मश्री आचार्य क्षेमचन्द्र 'सुमन' ने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ 'दिवंगत हिंदी साहित्य-सेवी कोष' के तृतीय संस्करण हेतु श्री द्विवेदी की धर्मपत्नी श्रीमती कृष्णा द्विवेदी (से. नि. प्राचार्या कन्या इंटर कॉलेज, सासनी, हाथरस) से उनके सम्पूर्ण परिचय का ब्यौरा मँगवाया था किन्तु आचार्यवर की श्वास-रोग के चलते अस्वस्थता एवं सन १९९३ में लम्बी बीमारी के निधन के पश्चात् इस संस्करण का प्रकाशन न हो सका।

श्री द्विवेदी के कृतित्व में जीवन का स्पंदन तथा द्वंद्व सम-भाव से उपस्थित है। यह अक्षर-सम्पदा सचमुच अक्षर-सम्पदा ही है। श्री द्विवेदी में गहन-सौन्दर्य-बोध विद्यमान था, यह उनके कृतित्व में भी परिलक्षित होता है। नारी-सौन्दर्य के प्रति उनके चिन्तन में दिव्य-चेतना दिखाई देती है। वे अनुरागी हैं, तो वैरागी भी हैं। उनके काव्य में ग्रामीण परिवेश की मानसिक संरचना बिलकुल संतों की वाणी के समान सुनाई पड़ती है। राजनैतिक मतवादों के प्रति बंधन-मुक्त रहते हुए भी वे सामयिक राजनीति के प्रति काव्यात्मक स्तर पर संवेदनशील जान पड़ते हैं।

समकालीन कविता में उनका स्वर ज्वाज्वल्यमान नक्षत्र के समान मुखरित हुआ किन्तु क्रूर काल -गति ने एक सड़क दुर्घटना में उन्हें मात्र ४० वर्ष की अल्पायु में ही काव्य-जगत से सदा-सदा के लिए दूर कर दिया, जबकि अपने कृतित्व से वे प्रसिद्धि के शिखर पर अपना परचम फहराने के अधिकारी हो चुके थे। उनकी कविता गहन-सामाजिकता से व्युत्पन्न कविता है, वे जनकवि के रूप में विख्यात रहे हैं। किन्तु उनकी यह लोकचिंतन-काव्य धारा, उनका समूचा कृतित्व आज तक केवल पांडुलिपियों के पन्नों में क़ैद ही रहा है। मरणोपरांत प्रकाशित उनकी एकमात्र कृति 'अन्ततः' के साथ भी प्रकाशक की उदासीनता के कारण न्याय न हो सका और यह केवल पन्नों पर छप कर घर की दीवारों तक ही सिमट कर रह गयी। यह स्थिति अत्यंत दु:खद व कष्टप्रद लगती है।
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