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{{KKRachnakaarParichay
|रचनाकार=शंकरलाल द्विवेदी
}} स्वनामधन्य कवि तथा वरद सरस्वती पुत्र श्री शंकर शंकरलाल द्विवेदी बाल्यावस्था से ही फक्कड़ व स्वाभिमानी प्रवृत्ति के धनी थे। उन्हें ओज तथा वीर रस के साथ-साथ श्रृंगार-रस में भी सिद्धि दक्षता प्राप्त थी। वे 'आग' और 'राग' दोनों स्वरों के सशक्त हस्ताक्षर व अद्भुत काव्य-सर्जक रहे हैं। श्री द्विवेदी, श्रृंगार-रस आधारित काव्य में भी वे संयोग तथा -वियोग दोनों ही पक्षों पर समानाधिकार रखते थे। अपने गीत-माधुर्य और ओजमयी प्रस्तुतियों वाणी के साथ-साथ अपने स्वच्छंद व्यव्हार के कारण वे अपने समकालीन कवियों में ख़ासा लोकप्रिय हुआ करते थे। अपनी विलक्षण काव्य प्रतिभा के कारण उन्हें धनी श्री द्विवेदी को अखिल भारतीय कवि-सम्मलेनों में विशिष्ट सम्मान प्राप्त था।
श्री द्विवेदी के कृतित्व में जीवन का स्पंदन तथा द्वंद्व सम-भाव से उपस्थित है। यह अक्षर-सम्पदा सचमुच अक्षर-सम्पदा ही है। श्री द्विवेदी में गहन-सौन्दर्य-बोध विद्यमान था, यह उनके कृतित्व में भी परिलक्षित होता है। नारी-सौन्दर्य के प्रति उनके चिन्तन में दिव्य-चेतना दिखाई देती है। वे अनुरागी हैं, तो वैरागी भी हैं। उनके काव्य में ग्रामीण परिवेश की मानसिक संरचना बिलकुल संतों की वाणी के समान सुनाई पड़ती है। राजनैतिक मतवादों के प्रति बंधन-मुक्त रहते हुए भी वे सामयिक राजनीति के प्रति काव्यात्मक स्तर पर संवेदनशील जान पड़ते हैं।
'ताजमहल', 'शीष कटते हैं, कभी झुकते नहीं', 'इस तिरंगे को कभी झुकने न दोगे', 'गाँधी-आश्रम', 'निर्मला की पाती', 'देश की माँटी नमन स्वीकार कर', 'विश्व-गुरु के अकिंचन शिष्यत्व पर' जैसी अनेक कालजयी कविताओं के सर्जक रहे। समकालीन कविता में उनका स्वर ज्वाज्वल्यमान नक्षत्र के समान मुखरित हुआ किन्तु क्रूर काल -गति ने एक सड़क दुर्घटना में उन्हें मात्र ४० वर्ष की अल्पायु में ही काव्य-जगत से सदा-सदा के लिए दूर कर दिया, जबकि अपने कृतित्व से वे प्रसिद्धि के शिखर पर अपना परचम फहराने के अधिकारी हो चुके थे। हुआ। उनकी कविता गहन-सामाजिकता से व्युत्पन्न कविता है, वे जनकवि के रूप में विख्यात रहे हैं। किन्तु उनकी यह लोकचिंतन-काव्य धारा, उनका समूचा कृतित्व आज तक केवल पांडुलिपियों के पन्नों में क़ैद ही रहा है। मरणोपरांत प्रकाशित उनकी एकमात्र कृति 'अन्ततः' के साथ प्रकशित हो कर भी प्रकाशक की उदासीनता गुमनामी के कारण न्याय न गह्वर में खो गई तथा पृष्ठों पर अंकित हो सका और यह केवल पन्नों पर छप कर भी घर की दीवारों तक ही सिमट कर रह गयी। यह स्थिति अत्यंत दु:खद व कष्टप्रद लगती है। माँ शारदे के वरद पुत्र तथा माँ भारती के इस अमर गायक का २७ जुलाई, १९८१ को एक सड़क दुर्घटना में महाप्रयाण हो गया। क्रूर काल -गति ने मात्र ४० वर्ष की अल्पायु में ही श्री द्विवेदी को अपने परिवारीजन, काव्य-जगत के अनेकानेक प्रशंसकों व मित्रों से सदा-सदा के लिए दूर कर दिया, जबकि अपने कृतित्व से वे प्रसिद्धि के शिखर पर अपना परचम फहराने के अधिकारी हो चुके थे।