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|रचनाकार=शंकरलाल द्विवेदी
|संग्रह=अन्ततः / शंकरलाल द्विवेदी
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<poem>
'''एक सहारौ राबरौ! माँ!'''
अगम-मिगम प्रतिपादिते!
ममतामयी जगदम्बिके!
मोहि,
एक सहारौ राबरौ! माँ! एक भरोसौ राबरौ।।
हे आदि-सक्ति जगधारिणी!
तू रचै-पचै, पारै तुही।
फिरि प्रलय-निसा बनि, स्रस्टि कौ,
बिस्तार संहारै तुही।।
जय, जय, जय ज्योति स्वरूपिणी,
भय-हारिणि! भव-तारिणि!
भटक्यौ बड़ौ, अब लैब कौं
सुत सूधरौ, अति साबरौ।
जाहि एक सहारौ राबरौ।
माँ! एक भरोसौ राबरौ।। 1।।
पूजा बिधि और बिधान ते,
एकौ पल कौं बनती कबौं।
निभती जौ पै एकौ बचनु,
इतनौं बिकल होतौं न तौ।।
इतनी उमर बीती, परी
भरि भीर, तौ चेत्यौ हियौ,
मैया! बरद-कर-परस की
टुक लालसा पूरी करौ।।
मोहि एक सहारौ राबरौ।
माँ! एक भरोसौ राबरौ।। 2।।
-१७ अक्तूबर, १९८०
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