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{{KKRachna
|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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मुक़द्दर हो गये हालात ऐसे
वगरना लोग करते बात ऐसे
बिखर के हो गए हम रेज़ा रेज़ा
जुड़े थे आप से जज़्बात ऐसे
मुनाफ़िक़ थे मेरे लश्कर में वरना
भला में तुम से खाता मात ऐसे
बचाना था चराग़ों को वगरना
हवा के जोड़ता मैं हाथ ऐसे
भला हम को कोई आंखें दिखाता
हमें रहना था घर में साथ ऐसे
मेरे अपने मेरे अपने नहीं थे
वगरना ख़ाली जाती बात ऐसे
</poem>
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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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मुक़द्दर हो गये हालात ऐसे
वगरना लोग करते बात ऐसे
बिखर के हो गए हम रेज़ा रेज़ा
जुड़े थे आप से जज़्बात ऐसे
मुनाफ़िक़ थे मेरे लश्कर में वरना
भला में तुम से खाता मात ऐसे
बचाना था चराग़ों को वगरना
हवा के जोड़ता मैं हाथ ऐसे
भला हम को कोई आंखें दिखाता
हमें रहना था घर में साथ ऐसे
मेरे अपने मेरे अपने नहीं थे
वगरना ख़ाली जाती बात ऐसे
</poem>