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{{KKRachna
|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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शजर पे बैठे हुए हैं पंछी तनाव में सब
अभी शिकारी हैं अपने अपने पड़ाव में सब
मोहब्बतें हो रही हैं ज़ख़्मी किसे ख़बर है
अभी हैं मसरूफ़ अपने रिश्ते चुनाव में सब
नहीं तुम ऐसे नहीं हो जैसा ये पढ़ रहे हैं
हमें पता है क़सीदा-ख़्वाँ हैं दबाव में सब
बना के दिन भर मिरी अयादत को इक बहाना
नमक लगाने को आते रहते हैं घाव में सब
तुम्हारे अंदर के आदमी से नहीं हैं वाक़िफ़
ये लोग बैठे हुए हैं काग़ज़ की नाव में सब
</poem>
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शजर पे बैठे हुए हैं पंछी तनाव में सब
अभी शिकारी हैं अपने अपने पड़ाव में सब
मोहब्बतें हो रही हैं ज़ख़्मी किसे ख़बर है
अभी हैं मसरूफ़ अपने रिश्ते चुनाव में सब
नहीं तुम ऐसे नहीं हो जैसा ये पढ़ रहे हैं
हमें पता है क़सीदा-ख़्वाँ हैं दबाव में सब
बना के दिन भर मिरी अयादत को इक बहाना
नमक लगाने को आते रहते हैं घाव में सब
तुम्हारे अंदर के आदमी से नहीं हैं वाक़िफ़
ये लोग बैठे हुए हैं काग़ज़ की नाव में सब
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