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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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अब है शिकवा बदल गये सब लोग
जैसे ढाला है , ढल गये सब लोग
ज़िन्दगी ला रहे थे पटरी पर
रेल आई कुचल गये सब लोग
रख दिया सच निकाल कर मुंह से
झूट सारा निगल गये सब लोग
छोड़िए फिर कोई नया फ़ितना
उनसे कहना संभल गये सब लोग
नौकरी की तलाश में घर से
नौकरी पर निकल गये सब लोग
</poem>
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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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अब है शिकवा बदल गये सब लोग
जैसे ढाला है , ढल गये सब लोग
ज़िन्दगी ला रहे थे पटरी पर
रेल आई कुचल गये सब लोग
रख दिया सच निकाल कर मुंह से
झूट सारा निगल गये सब लोग
छोड़िए फिर कोई नया फ़ितना
उनसे कहना संभल गये सब लोग
नौकरी की तलाश में घर से
नौकरी पर निकल गये सब लोग
</poem>