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{{KKRachna
|रचनाकार=जहीर कुरैशी
|अनुवादक=
|संग्रह=भीड़ में सबसे अलग / जहीर कुरैशी
}}
आपस में इसलिए ही भरोसे नहीं रहे
अब लोग अपनी बात के पक्के नहीं रहे
जबसे जुड़ा है शहर से गाँवों का आदमी
गाँवों में रहने वाले भी भोले नहीं रहे
कुछ इस तरह से घास के जंगल हुए सपाट
अब घोंसले बनाने को तिनके नहीं रहे
जिस दिन से राजनीति ने अपना लिया उन्हें
उस दिन से वे भी चोर—उचक्के नहीं रहे
जो लोग आमजन से निकल कर बने थे ‘खास’
अब वे भी आम लोगों के अपने नहीं रहे
कैसे समझ सकोगे समंदर का तुम सुभाव
तुम से किसी समुद्र के रिश्ते नहीं रहे
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