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अब मूल प्रवृत्ति की बात करेंगे; भारतीय वाङ्मय के अनुसार प्रत्येक मानव के व्यक्तित्व में तीन गुण होते हैं- सत्त्व, रजस एवं तमस । सत्त्व व्यक्तित्व में ज्ञान, प्रकाश एवं सकारात्मकता आदि का संवाहक है; रजस- क्रोध, लोभ, मोह तथा अतिक्रियाशीलता आदि का संवाहक है । तमस अज्ञान, अन्धकार एवं आलस्य आदि का संवाहक है। गुणों में एवं व्यक्ति के स्वभाव में चक्रक सम्बन्ध है; अर्थात व्यक्ति के व्यवहार से गुण एवं गुणों से व्यवहार का सीधा सम्बन्ध है । प्रवृत्ति के मूल में उपस्थित आसक्ति सभी बुराइयों का मूल है; यह तथ्य प्रकाशकों के सम्बन्ध में भी है; किसी भी पुस्तक को प्रकाशित करने से पूर्व उसे गुणात्मकता के मापदंडों पर पूर्ण होना चाहिए; तथी लेखन एवं प्रकाशन सार्थक है । यदि लेखक तथा प्रकाशक स्वयं ही दशा-दिशाविहीन होंगे, तो वह समाज को क्या दिशा देंगें? रातों रात ख्याति अथवा धन प्राप्ति रजस एवं तमस की अधिकता के कारण उपजते हैं; जबकि रचनाकार को चिंतनशील एवं ज्ञान से युक्त होना चाहिए । ये सत्त्वगुण से होते हैं; इसलिए एक रचनाकार को सर्वप्रथम सात्त्विक भाव से युक्त होना चाहिए; तभी उसका रचनाकर्म सार्थक है । सात्त्विक भाव के प्रस्फुटन हेतु आवश्यक है- सकारात्मक सोच एवं निर्लिप्त भाव; रचनाकार में यह अपेक्षित ही नहीं अनिवार्य है ।
यह तो साहित्यकार के धर्म की बात थी; मेरा निरंतर प्रयास रहा है कि इस धर्म का निर्वाह करूँ । पूर्व में प्रकाशित मेरे संग्रहों 'आज ये मन', '[[मन के कागज़ पर]]' और '[[घुँघरी]]' को आप सभी आत्मीय पाठकों का पाठकीय आशीर्वाद प्राप्त हुआ; मैं सौभाग्यशालिनी हूँ । इन सभी संग्रहों को अच्छी लोकप्रियता मिली तथा इनकी अधिकतर रचनाएँ कविताकोश http://kavitakosh.org, हिन्दी चेतना https://www.hindichetna.com, सहज साहित्य https://www.sahajsahity.com, नीलाम्बरा.com, https://www.rachanakar.org, http://sahityakunj.net, http://amstelganga.org , http://www.udanti.com आदि पर सहस्रों पाठकों द्वारा पढ़ी तथा सराही जा रही हैं।
आपकी पाठकीय प्रतिक्रियाएँ मेरे लिए ऊर्जास्रोत हैं; एक बार पुनः आपके मध्य इस काव्य-संग्रह को लेकर उपस्थित हूँ; जिसका शीर्षक है- ‘मीलों चलना है’ । शीर्षक में प्रतिबिंबित है; वह प्रेरणा और जीवटता जो जीवन में निरंतर कर्मठता और संघर्षशीलता को ही जीवन का मुख्य आधार मानती है । इसी प्रेरणा और उत्साह के साथ हमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आसक्ति रहित कर्म को प्रेरक मानकर निष्काम भाव से कर्म करते रहने की आवश्यकता है । अब इस संग्रह के प्रकृति की बात करूँगी । यह संग्रह मन के सहज भावों तथा प्रेम में मिलन-विछोह आदि को शब्दों में पिरोने के साथ ही वर्त्तमान समाज की विद्रूपताओं को भी चित्रित करने का प्रयास है। पिछले संग्रह ‘घुँघरी’ की विषयवस्तु पहाड़ के जनमानस और महिला विषयों पर केन्द्रित थी; आप सभी पाठकों ने अपना भरपूर प्रेम प्रदान किया। आप सबकी आत्मीयता मेरे सृजनकर्म हेतु ऊर्जास्रोत है। आपका स्नेह बना रहे और मेरा रचनाकर्म निरन्तर चलता रहे; यही कामना है…
'''मकर संक्रान्ति, 15 जनवरी, 2020'''