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{{KKRachna
|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
}}
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रीड को बोझे झुकाए
घर-गृहस्थी के
और ले आये बखेड़े
लोग बस्ती के।
रेत के सूखे कणों में
स्रोत जल ढूंँढे़
तोड़ते तटबंध चढ़कर
धूप के बूढ़े
भूल बैठी नाव फिर से
घाट-गश्ती के।
फड़फड़ाती पंख चिड़िया
गिन रही तिनके
घोंसलों के पास बिखरे
खण्डहर जिनके
याद आते
आज वे दिन
मौज-मस्ती के।
खेत पर सरसों खड़ी
सब अटकलें सुनती
धार पैनी फाँसने को
पल नये बुनती
तेल की
परछाइयों में
बोल हस्ती के।
-रामकिशोर दाहिया
</poem>
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|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
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रीड को बोझे झुकाए
घर-गृहस्थी के
और ले आये बखेड़े
लोग बस्ती के।
रेत के सूखे कणों में
स्रोत जल ढूंँढे़
तोड़ते तटबंध चढ़कर
धूप के बूढ़े
भूल बैठी नाव फिर से
घाट-गश्ती के।
फड़फड़ाती पंख चिड़िया
गिन रही तिनके
घोंसलों के पास बिखरे
खण्डहर जिनके
याद आते
आज वे दिन
मौज-मस्ती के।
खेत पर सरसों खड़ी
सब अटकलें सुनती
धार पैनी फाँसने को
पल नये बुनती
तेल की
परछाइयों में
बोल हस्ती के।
-रामकिशोर दाहिया
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