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{{KKRachna
|रचनाकार= कविता भट्ट
}}
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<poem>
किसी प्रियजन की मृत्यु पर
था वह बहुत ही दुःखी
न जाने क्यों रो रहा था
जबकि उसके भीतर
सुबह से शाम
और शाम से सुबह तक
मरता है एक व्यक्ति प्रति पल
जो उसे सबसे अधिक प्रिय होता है
किन्तु वह मन में ही रोता है
बाहर से मजबूत होकर सभ्य व्यक्ति
जीवित होने का ढोंग करता है
है न बहुत बड़ा आश्चर्य
-0-
</poem>
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|रचनाकार= कविता भट्ट
}}
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<poem>
किसी प्रियजन की मृत्यु पर
था वह बहुत ही दुःखी
न जाने क्यों रो रहा था
जबकि उसके भीतर
सुबह से शाम
और शाम से सुबह तक
मरता है एक व्यक्ति प्रति पल
जो उसे सबसे अधिक प्रिय होता है
किन्तु वह मन में ही रोता है
बाहर से मजबूत होकर सभ्य व्यक्ति
जीवित होने का ढोंग करता है
है न बहुत बड़ा आश्चर्य
-0-
</poem>