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अग्नि पथ / महेंद्र नेह

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<poem>
रो रहे हैं खून के आँसू
जिन्होंने इस चमन में
गन्ध रोपी है

फड़फड़ाई सुबह जब
अख़बार बनकर
पाँव उनके पैडलों पर थे
झिलमिलाई रात जब
अभिसारिका बन
हाथ उनके साँकलों में थे ।

सी रहे हैं फट गई चादर
जिन्होंने
इस धरा को चाँदनी दी है

डगमगाई नाव जब
पतवार बनकर
देह उनकी हर लहर पर थी
गुनगुनाए शब्द जब
पुरवाइयाँ बन
दृष्टि उनकी हर पहर पर थी

पढ़ रहे हैं धूप की पोथी
जिन्होंने
बरगदों को छाँह सौंपी है

छलछलाई आँख जब
त्योहार बनकर
प्राण उनके युद्ध रथ पर थे
खिलखिलाई शाम जब
मदहोश होकर
क़दम उनके अग्नि - पथ पर थे

सह रहे हैं मार सत्ता की
जिन्होंने
इस वतन को ज़िन्दगी दी है ।
</poem>
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