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|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
}}
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उठ रहे
दंगे-धुएँ हैं
नून-रोटी साग पर
हो गया
चलना जरूरी
आग फैली आग पर
पीर की
अनुभूतियाँ भी
शब्द पाकर
बोलती हैं
खीर टेढ़ी हो
भले पर !
तह परत को खोलती हैं
तिलमिलाये
भाव लेकर
रागिनी है राग पर
रोटियाँ, घर,
द्वार, कपडे
दाँव में खुद को
लगाकर
फिर मुसीबत
झेलने को
पग धरे
आगे बढ़ाकर
मंत्र जागे
पढ़ रहा
मुस्कान
लीले नाग पर
-रामकिशोर दाहिया
</poem>
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|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
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उठ रहे
दंगे-धुएँ हैं
नून-रोटी साग पर
हो गया
चलना जरूरी
आग फैली आग पर
पीर की
अनुभूतियाँ भी
शब्द पाकर
बोलती हैं
खीर टेढ़ी हो
भले पर !
तह परत को खोलती हैं
तिलमिलाये
भाव लेकर
रागिनी है राग पर
रोटियाँ, घर,
द्वार, कपडे
दाँव में खुद को
लगाकर
फिर मुसीबत
झेलने को
पग धरे
आगे बढ़ाकर
मंत्र जागे
पढ़ रहा
मुस्कान
लीले नाग पर
-रामकिशोर दाहिया
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