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|संग्रह=धूप की लहरें / गोपीकृष्ण 'गोपेश'
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<poem>
मैं तो राह देखकर हारा !

कलियों ने अपनी अलियों से
अपने मन की कही-सुनी है,
उनकी बात बहुत छोटी थी,
मेरी गाथा कई गुनी है :
आशा बँधी है — व्यर्थ न होगा —
मेरा रोदन - क्रन्दन सारा !
पर मैं राह देखकर हारा ! !

रात भीगती जाती है अब,
मेरे, तुम तो गए सबेरे,
मुझको तो काटे खाते हैं
इने-गिने ये सपने मेरे !
अपलक देख रहा हूँ, तुमको
पथ दिखलाता है ध्रुवतारा !
मैं तो राह देखकर हारा ! !

कोई पथिक इधर आया तो
मैं कहता हूँ — आते हो तुम,
मैं रोता हूँ, आंसू बनकर
मुझसे कुछ कह जाते हो तुम !
’मेरा साथी कहीं गया है,
आता ही है इस पल, उस पल,
कहता हूँ मैं सम्हल-सम्हलकर’
रुककर कभी पूछता है कुछ
जो कोई पंथी बेचारा !
मैं तो राह देखकर हारा ! !
</poem>
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