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|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
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चिमनी के चूल्हों से
कैसा जहरिल
धुआंँ उठा है!
दम-सा घुटा-घुटा है

घने वनों में
डेरा डाले
पाले पेट कुल्हाड़ी
सात समंदर
पार पहुंँचती
चंदन वन की झाड़ी
देश बेंचकर
धन बटोर में
चोर गिरोह जुटा है

बाग-बगीचे
महज़ रह गये
परचूनों के ठेले
धनिया-जीरा
नमक तौलता
उद्यम बैठ अकेले
धुआंँ उगलते
वाहन सारे
सांँसों का
संगीत लुटा है

धूल-धुएँ से
हवा नहाकर
बैठी खुले मुड़ेरे
नहीं उठाती
माँ भी सोता
बच्चा अलस्सबेरे
पल्ली में सांँसें
दुबकी हैं
छाती दर्द अटा है

-रामकिशोर दाहिया

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