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{{KKRachna
|रचनाकार= जय चक्रवर्ती
}}
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<poem>
क्या लिखा,अब ये न पूछो,
सिर्फ-
लिखने के लिए हम लिख रहे हैं.
रीढ़ की हड्डी रखी
दरबार में
गिरवी हमारी
हर जगह गिरकर
उठाने में
कटी है उम्र-सारी
आस्था से अस्मिता तक
जी करे जिसका-
खरीदे, हम समूचे बिक रहे हैं.
पक्ष कोई भी न अपना
दृष्टि में
पैबस्त भ्रम हैं
इधर भी हैं, उधर भी हैं
दरअसल-
हम पेण्डुलम हैं
गिरगिटों के वंशधर हम,
सिर्फ़ दिखने के लिए ही
आदमी-से दिख रहे हैं.
शीर्ष पर पाखण्ड की सत्ता
हमें
खलती नहीं है
आग सीने में हमारे
अब कभी
जलती नहीं है
पाश, नागार्जुन,निराला और
कबिरा के लिखे पर
पोत हम कालिख रहे हैं.
-जय चक्रवर्ती
</poem>
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|रचनाकार= जय चक्रवर्ती
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क्या लिखा,अब ये न पूछो,
सिर्फ-
लिखने के लिए हम लिख रहे हैं.
रीढ़ की हड्डी रखी
दरबार में
गिरवी हमारी
हर जगह गिरकर
उठाने में
कटी है उम्र-सारी
आस्था से अस्मिता तक
जी करे जिसका-
खरीदे, हम समूचे बिक रहे हैं.
पक्ष कोई भी न अपना
दृष्टि में
पैबस्त भ्रम हैं
इधर भी हैं, उधर भी हैं
दरअसल-
हम पेण्डुलम हैं
गिरगिटों के वंशधर हम,
सिर्फ़ दिखने के लिए ही
आदमी-से दिख रहे हैं.
शीर्ष पर पाखण्ड की सत्ता
हमें
खलती नहीं है
आग सीने में हमारे
अब कभी
जलती नहीं है
पाश, नागार्जुन,निराला और
कबिरा के लिखे पर
पोत हम कालिख रहे हैं.
-जय चक्रवर्ती
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