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<poem>
फिर सियासत ने चली कोई नयी इक चाल है
हर जगह अब दिख रहा मज़लूम क्यूँ बेहाल है

मुल्क को तक़्सीम करने के नए मनसूबे हैं
अम्न को बर्बाद करने अब बिछाया जाल है

अब ख़ुशामद करने वालों का है निकला क़ाफ़िला
क़दमों में आम आदमी पज़-मुर्दा-ओ-पामाल है

जब उठाती हैं रईयत कोई भी मुश्किल सवाल
तू बयाँ करता भला फ़ौजियों का क्यूँ हाल है

मत नसीहत दो दवा-ए-तल्ख़ पीने की हमें
जब हिफ़ाज़त अपनी करती मुफलिसी बन ढाल है

थक गए जम्हूरियत में सुन मुनाफ़िक़ बातें पर
आह भी निकली नहीं हर होंठ पर तबख़ाल है

सुबह वो आएगी इस उम्मीद में जब मिट गए
तब बिरहमन ने कहा ये अच्छा अगला साल है
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