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04:28, 23 जुलाई 2021 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रेखा राजवंशी
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|संग्रह=
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<poem>
शाम चुपचप ढलती जाती है
तुम्हारी बात चलती जाती है
आँख को न था हादसों पे यकीं
न वो हँसती, न रोने पाती है
देख के चंद सितारों का रुख
कश्ती तूफ़ाँ में बढ़ती जाती है
लेके हाथों में वो सूखे गज़रे
ज़िंदगी ग़ज़ल गुनगुनाती है
तुमसे मिलने का, बिछड़ने का सबब
दुनिया पूछे तो मुस्कुराती है
वो जो आएँ, तो मेरा चाँद आए
ईद आती है, चली जाती है
</poem>