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|संग्रह=पोखर भर दुख / मृदुला सिंह
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<poem>
मूर्तियों को तोड़ने के लिए
जुटाई गई भीड़
क्या सचमुच जानती होगी
मूर्ति के विचारों को ?
कभी देखी होगी
'राज्य और क्रांति' की जिल्द
'सत्य के प्रयोग' से
हुए होंगे रूबरू
या पन्ना भी पलटा होगा
संविधान का?

ये नही जानते
जातिगत अपमान का दंश
नही जानते कृतज्ञता
नही जानते करोड़ों सपनों का
पसीना लगा है
इस देश को रचने में
ये सभ्यता की सीढ़ियों को हटाते
नही सोचते
कि संस्कृति का क्षरण हो रहा है
तोड़ते जा रहे
वापस लौटने के लिए बने पुल

मूर्ति भंजको के अट्हास में
विध्वंस का संदेश प्रसारित होता है
वर्तमान की लड़ाई इतिहास से करते
इन्हें पता नही
भविष्य इनकी पीढ़ियों के सामने
इन्ही खंडित मूर्तियों को रखेगा
अमानत के रूप में

पर क्या नाश के पक्षगामी
तोड़ पाते है मूर्तियों के विचारों को ?
क्योंकि जितनी प्रचंडता से
उनके विग्रह पर चलते हैं हथौड़े
उतनी ही प्रखरता से वे
जी उठते है हर बार
पहुंचते हैं जन जन तक

सोचती हूँ मूर्तिभंजन की संस्कृति
किस भूमि में उपजती है
कौन सिरज रहा होता है इतनी नफरत
संवैधानिक देश में यह काली पताकाएं
कट्टरता की नई व्याख्याएं हैं
ये हवा हैं रुकेंगी नही
गुजरने दो सर ऊपर से
दिल थामे रहो
ये हवा बदलेगी एक दिन
</poem>
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