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<poem>
कुम्हार की
भट्टी में
पका दो मुझे।
ताकि,
मैं चमचमाती
निकलूं।
और
झुलसा दूं उन अंधेरों को।
बुझते कोयले की आंच
मुझमें
लपट बनकर बस जाए। ।
उन दागों को मिटा दूं
जो तुम ने लगाए थे, सीता पर।
वे दाग!
मैं महसूसती हूँ
अपने शरीर पर।
मिटाना चाहती हूँ,
अपने शरीर से "कुलटा" के दाग और
तपे मिट्टी के घड़े जैसी,
निखर कर,
आना चाहती हूँ।
और झुलसा देना चाहती हूँ
उन अंधेरों को
जो आँख मूंदकर
तुमने लगाए थे सीता पर।
अपवित्रता के दाग।
</poem>
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