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मुझ में समुद्र / प्रमिला वर्मा

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<poem>
पूछती हूँ समुद्र से
उसकी
उफनती लहरों से
क्यों मुझ में,
एक ठंडक तारी
समुद्र!
तुम लहरों के संग,
करते हो हाहाकार।
सन्नाटे में,
हवाओं के साथ
सुनाई देती है
तुम्हारी चीखें।
मैं खिड़की बंद कर देती हूँ।
फिर भी,
दरारों से आती है
तुम्हारी!
चीखों कीआवाज़।
समुद्र!
क्या चीखना,
हाहाकार करना ही
है तुम्हारी नियति?
समुद्र!
क्यों बाँध नहीं लेते,
अपने पैरों में घुंघरू।
ताकि मैं,
खोलकर खिड़की
सुन सकूं
तुम्हारे घुंघरू की
छम! छम!
और गा सकूं,
कोई गीत मनभावन।
रोष और उद्विग्नता से न सही
थोड़े अनुराग से,
दिल की गहराइयों से।
हवाओं की सुरीली,
बांसुरी से।
ला सकूं
अपने प्रिय को,
खुद तक
इस पार।
समुद्र!
बाँधोगे ना घुँघरू?
</poem>
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