भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बिजूका / अमृता सिन्हा

2,556 bytes added, 17:17, 5 अक्टूबर 2021
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमृता सिन्हा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अमृता सिन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
रोज़ सवेरे
होती है, दरवाज़े पर
हल्की-सी एक आहट

होता है
हौले से प्रवेश उसका
एहतियात बरतते हुए
कि कहीं किसी की
नींद में न पड़े ख़लल

बर्त्तन भी जो टकराये तो
ना आये आवाज़
रहता है यह प्रयास मुसलसल।

झाड़ू-पोंछा, कपड़ा, बर्त्तन
जाने कैसे निबटा जाती है
इतने सलीक़े से, चुपचाप
सात-आठ घरों का बोझ उठाए
दौड़ती भागती, हिरनी-सी चपल

बिजूका बाई
जी हाँ, यही नाम है उसका

चौड़ा माथा
सुर्ख़ लाल बिन्दी
जैसे
आसमान पर उगता बाल सूरज
रेशमी आभा बिखेरता
जिसकी रश्मियों में चमकती हैं
उसकी आँखों की मछलियाँ

सतपुड़ा के पहाड़-सी नुकीली
सुतवाँ नाक पर, दमकता है शीशे का लवंग
हीरे की चमक को मात करता
लगता है जैसे
पहाड़ की गोद में
सुस्ता रहा हो थका चाँद

होंठों के बीच फँसी
उसकी फीकी मुस्कान

शायद उर्वशी नाम हो सकता था उसका
या फिर सुवर्णा

पर नहीं, बिजूका ही सही है
बिजूका जो
खेत में तन्हा टँगा
अपने काम में जुटा

सबके रहते अकेली ही
बच्चों की परवरिश करती
अन्नपूर्णा बनी
देखभाल करती
सारे कुटुंब की

न कोई संवेदना, न मिज़ाजपुर्सी
बस मशीन-सी घिसना
स्थिर
बिजूका-सी।
</poem>
Delete, Mover, Reupload, Uploader
16,010
edits