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याद करना मुझे / अमृता सिन्हा

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याद करना मुझे
पहली वारिश
की भीगी मिट्टी से उठती
सोंधी ख़ुशबू
जब
हवा के साथ
उड़कर
तुम्हारी साँसों से टकराये।

मींच लेना आँखें
जब फुहारें तुम्हारे
चेहरे को छू जाए

याद करना
जब, सूने बाग़
में यूँही पड़ा
ख़ाली झूला
ख़ुद-ब-ख़ुद
हौले से झूल जाए

और तब भी
जब
किसी ढलती शाम को
तुम्हारे अंधेरे कमरे के
उढ़के दरवाज़े
की हल्की दरार से
कोई तेज़ रौशनी
ज़बरन घुस आए।

याद करना
उस क्षण मुझे, जब
तुम्हारी थाली में पड़े
गरमा-गरम फुल्कों से निकलती भाप
छूने से तुम्हें डराती हो

अपनी खिसियाहट से
उबरने की क़वायद में जब तुम आँखें मूँदें
टाँगे ऊपर कर, आराम कुर्सी में धँस
जगजीत की ग़ज़ल गुनगुनाते हो
याद करना मुझे

या फिर
तेज़ी से, राह चलते
कोई फ़ुर्तीली गिलहरी
तुम्हारे क़दमों को छूती
झट, पेड़ों में जा छुपती हो
याद करना मुझे।

ये यादें ही तो
हैं, धरोहर अपनी
तभी, कहती हूँ
रखना मुझे अपनी यादों में
महफ़ूज़
हर पल, हर क्षण

क्योंकि
मैं ख़ुद
अपने आप से ज़ियादह
हूँ तुम्हारी यादों में।
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