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मैं आ गया हूँ
मंच पर अब
द्वार के सानिध्य में होकर खड़ा
मैं कर रहा कोशिश समझने की
दूर की उस गूँज को
क्या भला होकर रहेगा
ज़िन्दगी में
 
रात की छाया असित
जो सहस्त्रों नाट्य-शाला पार कर आई
हो गई अब स्वयं मुझ पर केन्द्रित
 
ऐ पिता
यदि हो सके सम्भव कहीं तो
मेरे हाथ से विष-पात्र ले लो
है नहीं इंकार मुझको
आपकी जो भी सुनिश्चित योजना
खेल खेलूँगा वही
जो भी मिलेगी भूमिका
</poem>
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