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<poem>
कॉफ़ी हाउस जानता है उनके साम्राज्य का विस्तार
मर्गारिता और मध्य यामिनी जानती हैं, उनके ताज में कितने नगीने —
पुस्तक मेले के दिन-रातों ने उनको चन्दनवन
दिखाया हमेशा से ।

तख़्त को नज़रअन्दाज़ किया था इसलिए,
श्रावण के प्रपात में था उनका अबाध आवागमन
अश्वारोही विहीन पल्टन लेकर, उन्होंने अक्षर शासन
किया नियमित ।

कोलकाता में खिलाया पारिजात
देवता के हाथों से खोलकर पढ़ी थी चिट्ठी
उनके ही आदेश पर, नीरा ने उपेक्षा करना सीखा है भ्रू-पल्लव ।

और सप्तडिंगा बहता गया आड़ियल खाँ के
मुहाने पर ।
सम्राट का आसन उनको ही शोभे;
‘कोई’, ’कोई’ नहीं ....
वह एकक, अनिवार्य, स्वयं
सुनील गंगोपाध्याय ।

'''मूल बांगला से अनुवाद : लिपिका साहा'''
</poem>
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