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भूख / पाब्लो नेरूदा / तनुज

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<poem>
मैं तरस रहा हूँ, प्रिये !
देखने के लिए तुम्हारा मुख,
सुनने के लिए तुम्हारी आवाज़,
सहलाने के लिए तुम्हारे केश,

चुप्पी और भूख की अतिव्याप्ति से,
मैं काट रहा हूँ लगातार
इन अनजान गलियों के चक्कर !

रोटी से मुझे सन्तोष नहीं होता,
भोर मुझे निकम्मा बना देती है,
और पूरा दिन —
ढूँढ़ता रहता हूँ मैं
तुम्हारे क़दमों के वे गीले निशान

तुम्हारी वह चमकीली हँसी
देखने की क्षुधा जगी है
आज मन में,

तुम्हारे हाथ मानो —
वे रंग हैं किन्हीं बनीली कटाई के,

और मेरी यह भूख —
मैं निहार सकूँ
तुम्हारे नाखूनों के पास पसरे हुए
फीके पत्थरों को,

और अपनी
इस आदिम भूख को
मिटाने के लिए
मैं खाना चाहता हूँ
तुम्हारी त्वचा,
जैसे खाता हूँ पूरा का पूरा 'बादाम' ...

यह तृष्णा अब शान्त तभी होगी
जब मैं निगलूँगा
तुम्हारे ऊपर फैलती हुईं,
सूर्य की इन तमाम किरणों को

गौरवशाली साम्राज्य की तरह
ऊँची उठी हुई तुम्हारी यह नाक,
काश, इसे कभी परोस सको तुम !

मेरी यह इच्छा कभी
मैं गटक सकूँ तुम्हारी
इन बरौनियों की क्षणभँगुर छाया।

'क्वाइटरेचु ' की बंजर हो चुकी
ज़मीन पर जैसे बेकाबू भटकते हैं
जंगली बिलाव,
मैं चारों दिशा भटक रहा हूँ
बस, भूख से,
सूँघ करके तुम्हारा धुन्धलका,
तुम्हें ढूँढ़ते हुए,
पा सकूँ मैं :
तुम्हारा वह गर्म बेचैन हृदय !

सुनो, मेरी जान,
मैं तुमसे प्यार करता हूँ ,
और तुम्हें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता !

'''तनुज द्वारा अँग्रेज़ी से अनूदित'''
</poem>
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