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भू-दृश्य / उंगारेत्ती

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<poem>

'''सुबह'''

ताज़ा ख़यालों की माला वह
पुष्पित जल में दीप्त ।


'''दोपहर'''

पतले तन्तुओं से हो गए हैं
पहाड़
और पसरता रेगिस्तान

उमड़ रहा है अधीरता से
नींद तक परेशान है
परेशान हैं बुत भी ।


'''शाम'''

आग पकड़ती हुई पाती है
वह अपने को निर्वसन
लाली समुद्र की हो जाती है

बोतली हरी
कुछ नहीं, सीपी है यह ।

चीज़ों में शर्म की टीस
औचित्य जताती है इन्सानी
दुख का

एक पल के लिए उदघाटित
करती हुई
जो कुछ है समूचे का
अनवरत क्षय


'''रात'''

सब कुछ पसरा है विरल,
भ्रान्त
जाती हुई रेलों की सीटियाँ

और यहाँ, जहाँ अब
कोई साक्षी नहीं है
उभरता है मेरा चेहरा

वास्तविक
और निराश ।
</poem>
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