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|रचनाकार=रैनेर मरिया रिल्के
|अनुवादक=अनिल जनविजय
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<poem>
मैं अपने पुराने घर में हूँ
बाहर खिड़की के
बिखरा पड़ा है
प्राग शहर एक बड़े से घेरे में ।
किसी जादुई चाल से
काला झुटपुटा फैलाता जा रहा है
बाहर सड़कों पर ।

अपने गुम्बदों को आसमान में उठाए
वहाँ कोने में खड़ा है
सन्त निकोलस महागिरजाघर
चमक रहा है हरी काई से ढका ।

बत्तियाँ टिमटिमा रही हैं
बरस रहा है नीला कुहरा
सब कुछ ख़ामोश हो चुका है
शहर के सन्नाटे में ।

अचानक मुझे लगता है
इस पुराने घर में
अदृश्य रूप से कोई
फुसफुसाकर मुझसे कहता है —
आमीन !

'''रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय'''
</poem>
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