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|रचनाकार=बैर्तोल्त ब्रेष्त
|अनुवादक= उज्ज्वल भट्टाचार्य
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<Poem>
धुँधले लाल कोहरे से ढँकी शाम के बीच
हमने देखी, ऊपर उठती लाल लपटें
काले आसमान में फैलती हुईं ।
वहाँ मैदानों में उमस भरी ख़ामोशी के बीच
चिटचिट आवाज़ करता हुआ
जल रहा था एक पेड़ ।

ऊपर की ओर फैली हुई दहशत से ख़ामोश काली शाखें
और उनके इर्दगिर्द
उन्माद सी नाचती हुई लाल चिनगारियाँ ।
कोहरे के बीच आग का सैलाब ।
सूखी मतवाली पत्तियों की सिहरती नाच
किलकारी भरकर, स्वच्छन्द, झुलसती हुई
बूढ़े तने की हंसी उड़ाती हुई ।

और अन्धेरी रात के बीच ख़ामोश, विशाल, जगमगाता हुआ
एक पुराने योद्धा सा, थका हुआ, बेहद थका हुआ
दुर्दशा में भी अपने शाही शान के साथ
खड़ा था वो जलता हुआ पेड़ ।

और अचानक फैल जाता है वो काली कठोर शाखों के बीच
ऊँची उठती हैं लाल बैंगनी लपटें
काले आसमान के बीच खड़ा रहता है वो कुछ देर

और फिर गिर पड़ता है चरमराकर, नाचती हैं चिनगारियाँ
चारों ओर ।

'''मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य'''
</poem>
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