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{{KKRachna
|रचनाकार=राबर्ट ब्लाई
|अनुवादक=यादवेन्द्र
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<Poem>
बताओ तो कि आजकल हम
यह क्या बात हुई कि जवान शरीर हो
और इसकी कोई आवाज़ न हो ?
देखो, जवाब कौन देता है
सवाल करो और जवाब हासिल करो।करो ।
ख़ासतौर पर हमें अपनी आवाज़ों में दम भरना पड़ेगा
अपने आपको तैयार कर चुके हैं हम
या अब ख़ामोशी की आदत-सी हो गई है ?
यदि हम अब भी अपनी आवाज़ बुलंद बुलन्द नहीं करेंगेतो काई न कोई (हमारा अपना ही) हमारा घर लूट ले जाएगा।जाएगा ।
ऐसा हो गया है कि
नेरूदा, अख़्मातवा, फ्रेडरिक डगलस जैसे
महान उदघोषकों की आवाज़ सुनकर भी
अब हम गौरैयों जैसे झाड़ियों में दुबक करदुबककर
अपनी अपनी जान की ख़ैर मना रहे हैं ?
एक हफ़्ते में हम कहाँ तक पहुँचते हैं ?
क्या आज भी गुरुवार ही है ?
फुर्ती दिखाओ, अपनी आवाज़ बुलंद बुलन्द करो।
रविवार देखते-देखते आ जाएगा।
'''अनुवाद : यादवेन्द्र
</poem>