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एक पगली नदी / दिनेश श्रीवास्तव

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मेरे गाँव के पास
बहती थी एक नदी
वह गंगा नहीं थी, यमुना नहीं थी।
न थी गोदावरी या सरस्वती।
और तो और
वह नर्मदा, सिंधु या कावेरी भी नहीं थी।

वह थी बस एक
सीधी, सादी, भोली सी नदी-
तभी तो शायद हमारे पुरखों ने
प्यार से उसे नाम दिया था- पगली।

पगली भादों में उफनती थी
खूब सारा झाग उगलती
बड़े-बड़े पेड़ों को उखाड़ती,
और बड़े-बड़े भंवरों में उन्हें नचाती
और ठठाती हुई उन्हें बहोर कर ले जाती-
बड़ी बहन के पास।

उसकी बड़ी बहन-
वाल्मीकि ने प्यार से उसका नाम दर्ज किया था
रामायण में- स्यन्दिका।
पगली उस समय भी रही होगी-
पर राम की राह में बाधा न बनी-
और प्रसिद्ध न हो पायी स्यन्दिका की तरह।

पर पगली,
पगली थी न।
युगों तक पगली बहती रही
और हमारे दुःख-दर्द, हमारे सपने,
हमारी प्रार्थनायें जाने किस किससे कह कर
गंगा के हाथों सागर तक पहुंचाती रही।

माघ में पगली सकुचाती थी।
लाज से सिकुड़ जाती थी।
और कोहरे की चादर ओढ़
मंथर गति से चलती,
गोद में मछलियाँ लिए,
चली जाती बड़ी बहन के पास।
जेठ की दुपहरिया में
पगली बच्चों के साथ खिलखिलाती
पथिकों की प्यास बुझाती,
गाँव की बहुओं को छेड़ती,
और बेटियों को दुलारती।

खूब दुबली होकर भी-
पहुँच जाती थी बड़ी बहन के पास।
पगली थी न।
उसकी राह तय न थी।
हर साल नयी राह बनाती थी।
कुछ पुराने खेत काट देती।
कुछ नए मैदान दे देती।
कहीं बालू, और कहीं उर्वरा धरती देती
इठलाती, बलखाती,
उफनती, खिलखिलाती,
सकुचाती बहती रही युगों तक।

कहीं जाने पर
साथ-साथ दूर तक चलती
और उसके ऑंसू मेरी आँखों से झरते।

लौट कर आने पर दूर से ही भाग कर
आ लगती गले से,
और पल भर में सारी थकान
सारी चिंताएं, सारे दुःख विलीन हो जाते थे।

यही तो करती रही थी पगली युगों से-
यही तो किया था उसने मेरे पिता के साथ
और उसके पहले उनके पिता के साथ,
और युगों से पीढ़ी दर पीढ़ी सारे पिताओं के साथ।
फिर न जाने क्या हुआ-
जाने कहाँ से आये लोग-
उन्होंने पगली से सारा अमृत ले
उसकी धारा को जहर से पाट दिया।

पहले तो पगली
घावों से भरी, खजही कुतिया की तरह
भिनकती मख्खियों से घिरी कुनमुनाती हुई
भटकती रही।
और फिर एक दिन सो गयी-
हमेशा के लिए।

पर कभी कभी रातों में
दर्द से भरी उसकी चीख गूँजती है-

मेरे बच्चों
मेरे पास न आना।
पर मेरे बच्चों
मुझे भूल न जाना।
मैंने तुमसे और
तुम्हारे पुरखों से प्यार किया था।


रचनाकाल : फ्रैंकफुर्ट, जर्मनी, नवंबर २०१७
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