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<poem>
नज़र आता है कुछ-कुछ बेवफ़ा-सा
वो जैसा भी है लेकिन है भला-सा

डरा देती हैं अब दरिया की बातें
मुझे लगता है सब कुछ डूबता-सा

न जाने कौन सो जाता है मुझमें
सफ़र से लौटकर हारा-थका-सा

वो कितनी फ़िक्र रखता है हमारी
दिखा जाता है जब-तब आइना-सा

चिराग़ों में ये कैसी कँपकँपी है
कि हर चेहरा दिखाई दे बुझा-सा
</poem>
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