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हलफ़नामा / असद ज़ैदी

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नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ

मनुष्य और कबूतर ने एक-दूसरे को नहीं देखा
औरतों ने शून्य को नहीं जाना
कोई द्रव यहाँ बहा नहीं
फ़र्श को रगड़कर धोया नहीं गया

हल्के अँधेरे में उभरती है एक आकृति
चमकते हैं कुछ दाँत
कोई शै उठती है कील पर टँगी कोई चीज़
उतारती है चली जाती है

नहीं कोई बच्चा यहाँ सरकण्डे की
तलवार लेकर मुर्ग़ी के पीछे नहीं भागा

बन्दरों के क़ाफ़िलों ने
कमान मुख्यालय पर डेरा नहीं डाला

मैंने सारे लालच, सारे शोर, सारे
सामाजिक अकेलेपन के बावजूद केबल कनेक्शन
नहीं लगवाया

चचा के मिसरों को दोहराना नहीं भूला

नहीं, बहुत-सी प्रजातियों को मैंने
नहीं जाना जो सुनना न चाहा
सुना नहीं, गोया बहुत कुछ मेरे लिए
नापैद था

नहीं, पहिया कभी टेढ़ा नहीं हुआ

नहीं, बराबरी की बात कभी हुई ही नहीं
(हो सकती भी न थी)

उर्दू कोई ज़बान ही न थी

अमीरख़ानी कोई चाल ही न थी

मीर बाक़ी ने बनवाई जो
कोई वह मस्जिद ही न थी

नहीं, तुम्हारी आँखों में
कभी कोई फ़रेब न था ।

(रचनाकाल 1994-95)
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